असम की राजनीति में फिर से उबाल आ गया है। राज्य के प्रमुख जातीय समुदाय — मोरान, मटक, चुटिया, कोच राजबोंगशी, ताई अहोम और टी ट्राइब्स — ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। हज़ारों लोग मशाल जुलूस निकालकर और नारेबाज़ी करते हुए सड़कों पर उतर आए हैं। तिनसुकिया और धुबरी जैसे जिलों में यह आंदोलन उग्र रूप ले चुका है।
चुनावी वादा और 10 साल का इंतजार
2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में चुनाव प्रचार के दौरान बड़ा वादा किया था — इन छह समुदायों को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने का। इस वादे ने लाखों परिवारों में उम्मीद जगाई कि उन्हें शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण का लाभ मिलेगा।
लेकिन दस साल गुजरने के बाद भी यह वादा कागज़ों से आगे नहीं बढ़ा। नतीजा यह हुआ कि निराशा अब आक्रोश में बदल चुकी है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि भाजपा ने सिर्फ़ आश्वासन दिए, ठोस कदम कभी नहीं उठाए।
विरोध का राजनीतिक महत्व
ये समुदाय सिर्फ़ सांस्कृतिक रूप से ही नहीं बल्कि राजनीतिक रूप से भी ताक़तवर वोट बैंक माने जाते हैं। खासकर मोरान, ताई अहोम और कोच राजबोंगशी समुदाय असम के चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
प्रदर्शनकारियों ने साफ़ कहा है कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो वे 2026 के चुनावों में भाजपा को वोट नहीं देंगे। यह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि इसका सीधा असर उसकी चुनावी रणनीति और वोट शेयर पर पड़ सकता है।
सरकार की प्रतिक्रिया और चुनौती
राज्य सरकार कह रही है कि यह मामला केंद्र सरकार के पास विचाराधीन है। लेकिन गुस्साए समुदायों का कहना है कि अब वे केवल कानूनी और लिखित फैसले को ही स्वीकार करेंगे।
भाजपा के लिए यह स्थिति दोधारी तलवार है — वादा निभाना राजनीतिक रूप से चुनौतीपूर्ण है, और अगर निभाया नहीं गया तो 2026 विधानसभा चुनावों में भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है।
बड़ा सबक
असम का यह आंदोलन सिर्फ़ स्थानीय राजनीति तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश के लिए सबक है कि चुनावी वादे सिर्फ़ जीत तक सीमित नहीं होते, बल्कि उनका समय पर पूरा होना भी लोकतंत्र की आत्मा है।
