जयपुर | headlinesip.in | विशेष रिपोर्
राजस्थान की राजनीति में एक बड़ी उठापटक ने सत्ता और विपक्ष—दोनों को झकझोर दिया है। अंटा से भाजपा विधायक कंवरलाल मीणा की विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी गई है, और इसके साथ ही पूरे प्रदेश की सियासत में हलचल तेज़ हो गई है।
कारण?
राजस्थान हाईकोर्ट ने 21 मई 2025 को मीणा को तीन साल की सजा सुनाई थी — और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 191 के तहत उनकी विधानसभा सदस्यता स्वतः ही निरस्त मानी जाती है।
लेकिन यहां सिर्फ सदस्यता का सवाल नहीं था, बल्कि संविधान, सियासत और स्पीकर की भूमिका पर एक तीखी बहस खड़ी हो गई थी।
“संवैधानिक सहमति” या “राजनीतिक देरी”?
जब हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया, तो विपक्ष ने तुरंत स्पीकर से सदस्यता समाप्त करने की मांग की। लेकिन विधानसभा अध्यक्ष वसुदेव देवनानी ने कुछ दिन इंतज़ार किया।
अब, जब कार्रवाई हो चुकी है, तो उन्होंने कहा:
“मैंने विपक्ष से धैर्य की अपील की थी। संवैधानिक प्रक्रिया पूरी होते ही निर्णय लिया गया। लेकिन अफसोस, कुछ लोगों ने इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश की।”
स्पीकर का यह बयान जितना शांत था, उतनी ही तीखी चोट कर गया। उनका कहना था कि कुछ लोग जानबूझकर अध्यक्ष पद को विवाद में घसीटना चाहते थे—जो अब तक भारतीय राजनीति में ‘अछूत’ समझा जाता रहा है।
राजनीति में ‘देर’ का मतलब भी बहुत होता है!
विपक्ष का आरोप रहा कि भाजपा विधायक को बचाने के लिए यह निर्णय देर से लिया गया।
कांग्रेस, RLP और कई निर्दलीय विधायक लगातार स्पीकर पर दबाव बना रहे थे कि वे त्वरित कार्रवाई करें।
स्पीकर ने इस देरी पर खुद सफाई दी —
“मैं गहराई में नहीं जाना चाहता कि किसी मुद्दे को कितने समय में सुलझना चाहिए, लेकिन निर्णय पूरी तरह विधिक और संविधानसम्मत है।”
यानी, इशारों में उन्होंने यह भी कहा कि पहले भी स्पीकरों ने देरी की है, लेकिन वे इस पर टिप्पणी नहीं करना चाहते।
अब अंटा सीट खाली – अगला रण तैयार
कंवरलाल मीणा की सदस्यता रद्द होते ही अंटा विधानसभा सीट रिक्त हो गई है। चुनाव आयोग जल्द ही उपचुनाव की घोषणा कर सकता है और यह चुनाव भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई साबित हो सकता है।
भाजपा को यहां सियासी चोट से उबरने की चुनौती है, वहीं कांग्रेस इस फैसले को “न्याय की जीत” बताकर जनता में पकड़ मजबूत करना चाहेगी।
headlinesip विश्लेषण: ये सिर्फ एक सदस्यता नहीं गई, ये राजनीतिक नैतिकता की परीक्षा थी!
आज के दौर में न्यायिक फैसलों पर भी राजनीतिक दृष्टि डाली जाती है।
कंवरलाल मीणा प्रकरण ने एक बार फिर दिखा दिया कि “कानून के हाथ लंबे जरूर होते हैं, लेकिन राजनीति की आंखें उससे भी तेज़ होती हैं।”
और जब स्पीकर का पद भी सवालों के घेरे में आता है, तो ये सिर्फ संवैधानिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि गौरव और गरिमा की कसौटी बन जाती है।