त्रिवेंद्र का चुनावी चक्रव्यूह नहीं भेद पाए, बेटे की हार पिता के गले का बनी हार
हरिद्वार संसदीय सीट से पहली बार चुनाव रण में उतरे बेटे वीरेंद्र रावत की हार पिता पूर्व सीएम हरीश रावत के गले का ”हार” बन गई। भाजपा के अनुभवी नेता एवं पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत के चुनावी चक्रव्यूह को वीरेंद्र भेद नहीं पाए।चुनाव मैदान छोड़कर हरीश रावत ने बेटे को टिकट दिलाने के लिए पूरी ताकत लगाई थी। उनकी हठ के आगे कांग्रेस हाईकमान को झुकना पड़ा और वीरेंद्र पर दांव लगाया। चुनाव लोस का रहा या विधानसभा का, कांग्रेस के दिग्गज हरीश रावत चुनावी पिच पर बल्लेबाजी करने में कभी पीछे नहीं रहे। हर चुनाव में उन्होंने ताल ठोकी।
बेशक इस लोकसभा चुनाव में उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए चुनाव न लड़ने का एलान किया, लेकिन बेटे को टिकट देने की वकालत करने से वह पीछे नहीं रह पाए। भाजपा ने इसे पुत्रमोह के तौर पर प्रचारित भी किया। हालांकि, उनके इस फैसले के यही निहितार्थ निकाले गए कि हरीश रावत अपनी राजनीतिक विरासत बेटे वीरेंद्र रावत को सौंप देना चाहते हैं।
बेटे की हार को हरीश रावत की हार
मजेदार बात यह है कि चुनाव का एलान से पहले ही कांग्रेस हरीश रावत को हरिद्वार सीट से अपने मजबूत प्रत्याशी के रूप में देख रही थी, लेकिन वह चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुए और बेटे को टिकट दिलाया। इसके बाद यही माना गया कि बेशक वीरेंद्र चुनाव मैदान में है, लेकिन इम्तहान हरीश रावत का होगा और नतीजा भी उन्हीं का खुलेगा।
बेटे का टिकट तय होने के बाद हरीश भी हरिद्वार नहीं छोड़ पाए। बेटे के लिए दिन-रात प्रचार करना उनकी मजबूरी बन गया। बेटे के चुनावी रथ पर सवार पिता ने प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन चुनावी रण में भाजपा के अनुभवी त्रिवेंद्र सिंह रावत के चक्रव्यूह में वीरेंद्र फंस गए। राजनीतिक विशेषज्ञ बेटे की हार को हरीश रावत की हार मान रहे हैं।
बेटी का दांव रहा कामयाब, बेटे का नहीं