हरिद्वार में 2027 में होने वाला अर्ध कुंभ अब “पूर्ण कुंभ” कहलाएगा! उत्तराखंड सरकार ने अचानक यह घोषणा कर दी, और अब सवाल उठता है—क्या यह धार्मिक आस्थाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है? क्या यह महज प्रयागराज महाकुंभ 2025 की भव्यता से प्रभावित होकर राजनीतिक और आर्थिक लाभ कमाने की चाल नहीं?
परंपराओं को कुचलती सत्ता की राजनीति
हिंदू परंपराओं के अनुसार, कुंभ मेले का आयोजन ग्रह-नक्षत्रों की गणना के आधार पर होता है, न कि सरकारों की घोषणाओं से! कुंभ और अर्ध कुंभ का चक्र सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है—हर 12 साल में कुंभ और हर 6 साल में अर्ध कुंभ का होना होता है। हरिद्वार में 2027 में होने वाला मेला “अर्ध कुंभ” था, लेकिन सरकार ने अचानक उसे “पूर्ण कुंभ” घोषित कर दिया। सवाल यह है कि क्या सरकार के पास ज्योतिषीय गणनाओं को बदलने की शक्ति है? या फिर यह सब सिर्फ पर्यटकों और श्रद्धालुओं को आकर्षित करने का एक दिखावटी प्रयास है?
प्रयागराज महाकुंभ 2025 का असर: प्रतिस्पर्धा या आस्था?
यूपी सरकार प्रयागराज महाकुंभ 2025 को ऐतिहासिक बनाने के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, और उत्तराखंड सरकार को शायद यह डर सता रहा है कि हरिद्वार अर्ध कुंभ 2027 फीका न पड़ जाए। इसलिए, अर्ध कुंभ को “कुंभ” का नाम देकर राज्य सरकार पर्यटन और राजस्व बढ़ाने की जुगत में है। लेकिन इससे धार्मिक मान्यताओं का क्या होगा?
अगर इसी तरह सरकारें कुंभ की परंपरा को अपने हिसाब से बदलने लगें, तो कल को हर राज्य में “विशेष कुंभ” घोषित होने लगेंगे। इससे श्रद्धालु भी भ्रमित होंगे और कुंभ की पवित्रता भी धूमिल होगी।
धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ या आर्थिक खेल?
उत्तराखंड सरकार भले ही इस फैसले को “धार्मिक और आध्यात्मिक समर्पण” की भावना से जोड़कर पेश कर रही हो, लेकिन असलियत यह है कि यह फैसला टूरिज्म इंडस्ट्री और व्यापारिक फायदे के लिए किया गया है। सरकार को पता है कि कुंभ का नाम आते ही करोड़ों श्रद्धालु हरिद्वार की ओर उमड़ेंगे, जिससे होटल, परिवहन, तीर्थ स्थल और अन्य व्यापारिक गतिविधियों को जबरदस्त लाभ मिलेगा।
लेकिन सवाल उठता है—क्या धार्मिक आयोजन केवल व्यापारिक अवसर बनकर रह गए हैं? क्या सरकारों को अब सनातन धर्म की परंपराओं को भी अपने हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने का अधिकार मिल गया है?
जनता को चाहिए जवाब!
अगर आज यह फैसला बिना किसी तर्कसंगत आधार के स्वीकार कर लिया गया, तो कल को अन्य धार्मिक परंपराएं भी सत्ता के इशारों पर बदली जाएंगी। कुंभ जैसे पवित्र आयोजन को राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और आर्थिक लाभ का जरिया बनाना करोड़ों आस्थावानों की भावनाओं के साथ सीधा धोखा है।
उत्तराखंड सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि इस निर्णय का आधार क्या है? ज्योतिषीय गणनाएं कहां हैं? सनातन परंपराओं को बदलने का अधिकार सरकार को किसने दिया? और सबसे महत्वपूर्ण—अगर यह सिर्फ एक नामकरण का खेल है, तो क्या यह जनता को गुमराह करने की साजिश नहीं?
अब फैसला जनता के हाथ में है—वह सत्ता की इस “धार्मिक मार्केटिंग” को स्वीकार करती है या अपने विश्वास की रक्षा के लिए सवाल उठाती है!