नई दिल्ली।
“हम इज़्ज़तदार लोग हैं, पुलिस वैन में बैठना हमारी बेइज़्ज़ती है,” — ये शब्द हैं एक पाकिस्तानी नागरिक परवीन अख्तर के, जो पिछले 40 वर्षों से भारत में रह रही हैं। उनका दावा है कि उनके तीनों बच्चे भारत में पैदा हुए, पढ़े-लिखे, और आज जब उन्हें देश छोड़ने के लिए कहा गया तो सवाल उठाया – “हमें कैसे डिपोर्ट कर सकते हैं?”
लेकिन सवाल यह है कि – क्या भारत में 40 साल बिनाजानकारी के रहना, नागरिकता का अधिकार बन जाता है?
क्या यह देश केवल भावना और सहानुभूति पर चलेगा या कानून और पहचान की स्पष्टता पर?
NRC (National Register of Citizens) सिर्फ एक दस्तावेज़ी प्रक्रिया नहीं है, यह देश की आंतरिक सुरक्षा, संसाधनों के सही वितरण, और जनसंख्या के नियंत्रण से जुड़ा सवाल है।
परवीन अख्तर जैसे मामलों से ये साबित होता है कि लाखों लोग बगैर दस्तावेज़, बगैर वैध पहचान के, दशकों से इस देश में रह रहे हैं।
उनका रहन-सहन, स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई, अस्पतालों में इलाज, बिजली-पानी जैसी सुविधाएं — सब भारतीय नागरिकों के टैक्स से चल रही हैं।
यह केवल एक महिला की बात नहीं है — यह भारत की पहचान, सुरक्षा और संप्रभुता का मामला है।
विरोध करने वालों से सवाल —
अगर NRC नहीं होगा, तो किस आधार पर तय करेंगे कि कौन नागरिक है और कौन घुसपैठिया?
क्या भारत “No Document Nation” बन जाएगा जहाँ कोई भी आकर बस सकता है, और जब निकाला जाए तो “इंसानियत” की दुहाई देने लगे?
आज जिस मज़ाकिया अंदाज़ में यह कहा जा रहा है —
“पुलिस वैन में बैठना अपमान है”
— वो कल एक बड़ा राष्ट्रीय मज़ाक बन सकता है।
अब वक्त आ गया है जब नागरिकता को लेकर भावनाओं नहीं, सबूतों से बात होगी। NRC कोई विकल्प नहीं, यह एक अनिवार्यता है।
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