भारत सरकार ने पाकिस्तान की उस अपील को सिरे से खारिज कर दिया है, जिसमें उसने सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty) को पुनः स्थापित करने की मांग की थी। यह निर्णय न केवल भारत की जल नीति की दिशा में एक निर्णायक मोड़ है, बल्कि क्षेत्रीय भू-राजनीति में भी एक सख्त संदेश है – भारत अब पुराने सौहार्द्र की आड़ में एकतरफा समझौतों को ढोने को तैयार नहीं है।
क्या है सिंधु जल संधि और क्यों है यह विवादों में?
1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता से भारत और पाकिस्तान के बीच यह ऐतिहासिक समझौता हुआ था। इसके अंतर्गत 6 नदियों – सिंधु, झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास और सतलुज – को दो समूहों में बाँटा गया:
- पूर्वी नदियाँ (रावी, ब्यास, सतलुज): पूर्ण अधिकार भारत को।
- पश्चिमी नदियाँ (सिंधु, झेलम, चेनाब): प्राथमिक उपयोग पाकिस्तान को, लेकिन भारत सीमित उपयोग (जैसे सिंचाई, जलविद्युत) कर सकता है।
भारत ने इस समझौते का पालन अत्यंत अनुशासन और सदाशयता से किया, यहाँ तक कि 1965 और 1971 के युद्धों और 1999 के कारगिल संघर्ष के बावजूद भी यह संधि कभी नहीं तोड़ी।
पर सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान ने इस “जल सदभावना” का उत्तर भी सदभावना से दिया?
पाकिस्तान की “जल कूटनीति” और दोहरे मापदंड
बीते वर्षों में पाकिस्तान लगातार भारत द्वारा चेनाब और झेलम पर बनाए गए बाँधों पर आपत्ति जताता रहा है। वह विश्व मंचों, अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों और विश्व बैंक तक को खींचता रहा, जिससे भारत की परियोजनाएँ वर्षों तक अटकी रहीं। यह एक तरह की “जल आतंकवाद” की नीति रही — तकनीकी आपत्तियों की आड़ में भारत की आंतरिक परियोजनाओं पर राजनीतिक दबाव।
अब, जब भारत ने अपने अधिकारों के प्रयोग की दिशा में कदम बढ़ाया, पाकिस्तान ने उसी विश्व बैंक से अपील की कि संधि को पुनः बहाल किया जाए। भारत ने यह मांग ठुकराते हुए स्पष्ट किया कि:
“यह संधि पाकिस्तान के पक्ष में अत्यंत उदार थी, परंतु उसने इसे बार-बार तोड़ा — अब भारत अपने हितों के अनुसार इसमें संशोधन करेगा, वह भी अंतरराष्ट्रीय कानून के दायरे में।”
भारत की रणनीति: अब उदार नहीं, न्यायसंगत रवैया
भारत के इस निर्णय का अर्थ है कि वह अब पश्चिमी नदियों के “पूर्ण उपयोग की सीमा” तक अपनी परियोजनाओं को तेज़ करेगा — जैसे कि पानी का भंडारण, सिंचाई योजनाएँ, और run-of-the-river जलविद्युत परियोजनाएँ। यह भारत के जम्मू-कश्मीर और लद्दाख जैसे क्षेत्रों के लिए बड़ा आर्थिक और रणनीतिक लाभ हो सकता है, जहाँ जल संसाधन तो हैं, परंतु उनका पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा।
अंतरराष्ट्रीय कानूनी दृष्टिकोण: भारत का पक्ष मजबूत
भारत यह सारे कदम “इंडस वाटर्स ट्रीटी की धाराओं” के भीतर रहकर उठा रहा है। यह समझौता भारत को सीमित लेकिन ठोस अधिकार देता है, जिन्हें अब तक वह “अतिरिक्त सावधानी” से ही उपयोग करता रहा है। अब भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी यह दर्शा रहा है कि वह किसी संधि को एकतरफा दायित्व नहीं बनने देगा।
राजनीतिक संदेश: अब नीति में स्पष्टता है
मोदी सरकार का यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि पाकिस्तान से निपटने में अब कोई दुविधा नहीं है। उरी और पुलवामा के बाद जिस तरह से सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट एयर स्ट्राइक हुए, उसी “ठोस उत्तर” की नीति अब जलनीति में भी दिख रही है।
यह नीति कहती है:
“संधियाँ भावनाओं पर नहीं, समरूपता और सम्मान पर आधारित होती हैं।”
नज़रें अब आगे पर: क्या संधि बदलेगी?
भारत की यह घोषणा कि अब संधि में संशोधन होगा, एक बड़ी बात है। इसके दो मायने हैं:
- व्यावहारिक संशोधन: नई परियोजनाओं के लिए अधिकारों की फिर से व्याख्या और सीमा विस्तार।
- रणनीतिक संशोधन: पाकिस्तान पर पानी को एक राजनीतिक हथियार बनाने से रोकना।
यदि यह दिशा जारी रहती है, तो भविष्य में भारत अपने जल संसाधनों का और अधिक उपयोग कर सकेगा, जो जलवायु परिवर्तन और बढ़ती आबादी के संदर्भ में आवश्यक भी है।
निष्कर्ष नहीं, एक दृष्टिकोण
सिंधु जल संधि अब केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि बदलते भू-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में पुनर्पाठ का विषय बन चुकी है। पाकिस्तान के जलविरोधी रुख का अब भारत ने निर्णायक जवाब दे दिया है। यह न सिर्फ भारत की संप्रभुता की पुनर्स्थापना है, बल्कि विश्व मंच पर यह संदेश भी –
“अब उदारता एकतरफा नहीं होगी।”