उत्तर प्रदेश विधानसभा में उस समय तीखी बहस छिड़ गई जब नेता प्रतिपक्ष (एलओपी) ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से सवाल किया कि अगर सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी भाषा जोड़ी जा रही है, तो उर्दू को क्यों नहीं जोड़ा जा सकता? इस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विपक्षी दलों, विशेष रूप से समाजवादी पार्टी (सपा), पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने कहा,
> “समाजवादियों का चरित्र दोहरा हो चुका है, ये अपने बच्चों को पढ़ाएंगे इंग्लिश स्कूल में और दूसरों के बच्चों के लिए कहेंगे उर्दू पढ़ाओ… उसको मौलवी बनाना चाहते हैं, ‘कठमुल्लापन’ की ओर देश को ले जाना चाहते हैं, ये नहीं चल सकता है…” – योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश।
भाषा के नाम पर ध्रुवीकरण?
योगी आदित्यनाथ के इस बयान के बाद सियासी गलियारों में भूचाल आ गया। विपक्षी दलों ने इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाने वाला बयान बताया, जबकि भाजपा समर्थकों ने इसे दोहरे मानदंडों की पोल खोलने वाला करारा तमाचा करार दिया। सपा और कांग्रेस नेताओं ने मुख्यमंत्री के बयान को “भड़काऊ” बताते हुए कहा कि यह भाषाई और धार्मिक विभाजन को बढ़ाने का प्रयास है। सपा प्रवक्ता ने कहा, “हमारी मांग केवल इतनी थी कि अगर सरकार अंग्रेजी को बढ़ावा दे रही है, तो उर्दू को भी समान अवसर मिलना चाहिए। यह देश की एक संवैधानिक भाषा है।”
इस पर भाजपा नेताओं ने पलटवार करते हुए कहा कि विपक्ष केवल एक समुदाय विशेष को लाभ देने के लिए इस प्रकार के तर्क दे रहा है। भाजपा प्रवक्ता ने कहा, “अगर उर्दू को जोड़ने की बात हो रही है, तो फिर संस्कृत, भोजपुरी, अवधी, ब्रज जैसी अन्य भाषाओं को भी बढ़ावा क्यों नहीं दिया जाता? क्या यह न्यायसंगत है कि केवल उर्दू के लिए ही विशेष प्रयास किए जाएं?”
योगी का जवाब और विचारधारा
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के जवाब ने स्पष्ट रूप से भाजपा की विचारधारा को सामने रखा, जिसमें राष्ट्रीयता और व्यावहारिक शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती है। उन्होंने कहा, “हम शिक्षा व्यवस्था को ऐसा बनाना चाहते हैं जिससे युवा आत्मनिर्भर बनें। अंग्रेजी आज के दौर में वैश्विक भाषा है, जिससे नौकरियों के अवसर बढ़ते हैं। लेकिन विपक्षी दलों की मंशा बच्चों को आधुनिक शिक्षा से दूर कर, केवल एक समुदाय विशेष को एक ही प्रकार की शिक्षा तक सीमित रखना है।”
योगी आदित्यनाथ ने विपक्षी पार्टियों पर आरोप लगाया कि वे जानबूझकर शिक्षा व्यवस्था में कट्टरता को बढ़ावा देना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि ये लोग बच्चों को उर्दू में सीमित कर उन्हें केवल धार्मिक शिक्षा तक सीमित रखना चाहते हैं, ताकि वे आधुनिक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाएं और उनका भविष्य संकीर्ण दायरे में ही सिमटकर रह जाए।
भाषा और शिक्षा का भविष्य
उत्तर प्रदेश में शिक्षा और भाषा से जुड़ा यह विवाद कोई नया नहीं है। पहले भी मदरसों में सरकारी मान्यता और पाठ्यक्रम को लेकर बहस होती रही है। वर्तमान घटनाक्रम दर्शाता है कि आने वाले चुनावों में यह मुद्दा फिर से गर्माया जा सकता है।
राज्य सरकार द्वारा मदरसों के आधुनिकीकरण की दिशा में उठाए गए कदमों पर भी विपक्ष ने सवाल खड़े किए हैं। विपक्ष का आरोप है कि सरकार धार्मिक शिक्षा को खत्म करने की मंशा रखती है, जबकि सरकार का कहना है कि उनका उद्देश्य केवल छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा प्रदान करना है। भाजपा सरकार इस पर अडिग है कि तुष्टिकरण की राजनीति अब नहीं चलेगी।
क्या है जनता की राय?
जनता इस पूरे मामले पर बंटी हुई नजर आ रही है। कुछ लोगों का मानना है कि उर्दू को बढ़ावा देना सांस्कृतिक विविधता के लिए जरूरी है, जबकि कुछ इसे अनावश्यक राजनीति करार दे रहे हैं। भाजपा समर्थक इसे ‘धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण’ का उदाहरण मानते हैं, जबकि विपक्षी दल इसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों का मुद्दा बना रहे हैं।
शिक्षाविदों का कहना है कि भाषा की राजनीति से बचते हुए सरकार को सभी भाषाओं को समान महत्व देना चाहिए। उनका मानना है कि शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना होना चाहिए, न कि उन्हें किसी एक विशेष भाषा तक सीमित रखना।
यह विवाद केवल भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उत्तर प्रदेश की राजनीति के बड़े परिप्रेक्ष्य को दर्शाता है। शिक्षा नीति, अल्पसंख्यक अधिकार और राजनीतिक ध्रुवीकरण— ये सभी पहलू इस बहस में शामिल हो चुके हैं। भाजपा और विपक्ष के बीच यह मुद्दा अब आर-पार की लड़ाई बनता जा रहा है।
आगामी विधानसभा सत्रों और चुनावी अभियानों में यह मुद्दा और उग्र रूप ले सकता है। अब देखना होगा कि सरकार और विपक्ष इस विषय पर आगे क्या कदम उठाते हैं और क्या यह मुद्दा केवल चुनावी राजनीति तक सीमित रहेगा या फिर वास्तव में इससे शिक्षा व्यवस्था में कोई परिवर्तन आएगा।