- संपादकीय:
उत्तराखंड में हाल ही में संपन्न निकाय चुनावों ने एक गंभीर समस्या को उजागर किया है—मतदाता सूची से नाम गायब होना। यह घटना केवल प्रशासनिक लापरवाही का उदाहरण नहीं है, बल्कि हमारे लोकतंत्र के प्रति असंवेदनशीलता और शासन में जवाबदेही की भारी कमी को दर्शाती है।
मतदान किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की आत्मा है। जब लोगों को उनके मताधिकार से वंचित किया जाता है, तो यह केवल उनकी भागीदारी नहीं छीनता, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद पर सीधा प्रहार है। इस बार, यह प्रहार इतना गहरा था कि आम जनता के साथ-साथ पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और कांग्रेस प्रवक्ता गरिमा दसौनी जैसे दिग्गज भी इसके शिकार बने।
यह समझ से परे है कि डिजिटल युग में, जब तकनीक का भरपूर उपयोग हो रहा है, तब भी मतदाता सूची तैयार करने में ऐसी चूकें क्यों हो रही हैं? क्या यह केवल प्रशासनिक अक्षमता का मामला है, या फिर इसके पीछे कोई सुनियोजित राजनीतिक साजिश है? विपक्ष ने इसे सत्ताधारी पार्टी की चाल करार दिया है, जबकि सरकार इसे तकनीकी खामी बताकर पल्ला झाड़ रही है।
लेकिन यहां सवाल सिर्फ चुनावी राजनीति का नहीं है। सवाल है कि क्यों हर बार जनता को ऐसी अव्यवस्थाओं का सामना करना पड़ता है? क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है? अगर हमारे पास मतदान जैसे बुनियादी अधिकार की गारंटी नहीं है, तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है?
सरकारों को यह समझना होगा कि उनका काम केवल चुनाव जीतना नहीं, बल्कि जनता का विश्वास जीतना भी है। और यह विश्वास तभी कायम होगा जब हर नागरिक यह महसूस करेगा कि उनकी आवाज सुनी जा रही है। मतदाता सूची से नाम गायब होना केवल एक तकनीकी खामी नहीं है; यह प्रशासनिक उदासीनता और लोकतांत्रिक मूल्यों की अनदेखी का प्रतीक है।
उत्तराखंड की जनता को यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या ‘डबल इंजन सरकार’ का वादा केवल कागजों पर ही सीमित रहेगा? क्या सरकार अपने दायित्व को निभाने के लिए कदम उठाएगी, या यह मुद्दा भी अन्य समस्याओं की तरह समय के साथ दबा दिया जाएगा?
लोकतंत्र को सशक्त और जीवंत बनाए रखना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। यह समय है कि सरकार अपनी गलतियों को स्वीकार कर सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए। अगर आज हम चुप रहे, तो कल हमारा अधिकार और भी कमजोर हो जाएगा।